महामारी के इस दौर में सरकारी नौकरी ढूंढने वालों की व्यथा।

विश्वभर में महामारी के कारण हाहाकार मचा हुआ है, मुकेश अंबानी जैसे कुछेक अमीरों को छोड़ दिया जाए तो कोई भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं है। आज हम बात करेंगे रोजगार की जो इस समय भारत में सरकार पक्ष और विपक्ष के बीच में ज्वलनशील मुद्दा है। विपक्ष सरकार को बढ़ती बेरोजगारी के कारण कटघरे में खड़ा करता रहा है, वहीं ट्विटर, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर युवा सरकार से जवाब मांग रहें है कि उसने बढ़ती बेरोजगारी को लेकर क्या कदम उठाए हैं। हद तो तब हो गई जब प्रधानमंत्री के जन्मदिवस पर इंटरनेट पर राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस भी युवाओं द्वारा मनाया गया।महामारी का प्रभाव दो तरीकों से युवाओं पर पड़ा। पहले तो वो जो कि महामारी के कारण अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे हैं।
दूसरे वो युवा जो सरकारी नौकरी ढूंढ़ रहे थे लेकिन महामारी के कारण परीक्षाएं ना हो पाने की वजह से जिनका एक साल खराब हो चुका है। आज हम इनके बारे में ही चर्चा करेंगे। मैं खुद इसी श्रेणी में आता हूं।
युवाओं में हताशा और मजबूरी
सरकारी नौकरी ढूंढने वाले युवाओं के लिए एक वर्ष बहुत बड़ी चीज होती है। यदि हम केवल केंद्र सरकार की परीक्षाएं जैसे एसएससी, रेलवे और बैंकों की ही बात करें तो मोटे-मोटे तौर पर एक परीक्षार्थी साल में लगभग 15-20 परीक्षाएं देता है। और वो आशा करता है कि किसी एक में तो उसकी मेहनत और भाग्य रंग लाए। लेकिन कोरोना वायरस के प्रसार की शुरआत में ही परीक्षाएं स्थगित होने लगी थी। मार्च के महीने से अभी तक सात महीने बीतने वाले है । लेकिन एक-आध परीक्षाओं को छोड़कर कोई भी शुरू नहीं हुई हैं जिससे युवाओं में हताशा का मंजर देखने को मिल रहा है। जिस समय एक युवा नौकरी की शुरआत कर अपना घर बसाने का सोच रहा होता है, उस समय इस महामारी ने उसके बनाए गए सभी प्लान को चौपट कर दिया है। यदि कोई अब निजी क्षेत्र की और रुख करता है तो वहां भी नौकरी नहीं है तो उस क्षेत्र की तरफ भी देखना बेमानी सा लगता है।
सरकार का सरकारी नौकरियां पैदा करने को लेकर रूखापन
नरेंद्र मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने कहा था कि हमें रोजगार पैदा करने वाला बनना चाहिए ना की रोजगार ढूंढने वाला और सरकारी नौकरी ढूंढने वाला तो बिल्कुल भी नहीं। तभी ऐसा लग गया था कि सरकार निजीकरण के रास्ते पर अग्रसर है और वो नहीं चाहती की सरकारी नौकरी वाले युवा सरकारी खजाने पर भार बने। लेकिन ये बात भी सिर्फ भाषणबाजी लगती है जब वो 2019 में आम चुनाव से सिर्फ 1 महीने पहले रेलवे में 2 लाख नौकरियों के लिए आवेदन मंगवा लिए जाते हैं। युवाओं को वोट बैंक समझने वाली सरकार से चुनावों के दौर में ओर अपेक्षा भी क्या की का सकती है।
जनाब हद तो तब हो जाती जब डेढ़ साल बाद भी उन नौकरियों की पहली परीक्षा तक आयोजित नहीं हो पाती है। जब युवाओं का सब्र जवाब दे जाता है और वो सोशल मीडिया पर अपना विरोध दर्ज करवाता है तो रेलवे को पता चलता है कि "अरे ये तो हम भूल ही गए " तब रेलवे बोर्ड के माननीय चेयरमैन विनोद यादव आते है और दिसंबर मध्य से परीक्षा शुरू होने की बात कहते हैं। जब मीडिया उनसे सवाल पूछती है कि इतनी देरी क्यों हुई ? तो सर्वविदित और सर्वमान्य बहाने के नाम पर बेचारे कोरोना को यहां भी बली का बकरा बना दिया जाता है। कोई उनसे ये तो पूछे की कोरोना से पहले एक साल उन्होंने क्या किया ?
इस युवावस्था में जब एक विद्यार्थी राष्ट्र के विकास में योगदान देने की सोचता है उसी समय उसे सरकारी रूखापन और महामारी के रूप में विपरित परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। इसका असर कैरियर के साथ मानसिक रूप में भी होता है। सरकार को करना चाहिए कि अब जब चीजें धीरे-धीरे सामान्य हो रही है तो सरकारी नौकरियों के उत्सर्जन पर भी ध्यान दिया जाए । ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि विद्यार्थियों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए।